आंसु - Nidhishree

 महबूब आए, बारिश हो, हम भींग ना पाएं, 

इससे बड़ा दुःख क्या ?

वो मेरे शहर आए मुझे मालूम न हो, 

इससे बड़ा दुःख क्या ? 


सुना है वक्त के साथ सब बदल जाता है, पर उन कमरों का क्या जो किसी कारण बस ज्यों के त्यों छोड़ दिए गए , उन कमरों में क्या बदला वक्त के साथ ! 

आज दरवाज़ा खोल उस कमरे में जानें की हिम्मत की , तो पाया सबकुछ पहले जैसा ही था फिर भी कुछ तो था जो पहले जैसा नहीं था , वहीं मेज़ पर एक कलम थी जो मैं छोड़ आई थी वो ज्यों के त्यों आज भी वहीं रखी पड़ी थी , हां उसमे बहुत सी धूल जम गई थी जो  बहुत से पुराने किस्से कह रही थी ;


जहां कुछ बदला नहीं 

वहां भी कुछ बदल गया

जज़्बात सारे दफ्न हो गए

वक्त इतना गहरा हो गया

जो हिलाऊं एक भी पत्ता

तो दाग पड़ जाते हैं ।

ज़िंदगी का सबक यही है

एक वक्त के बाद बंद कमरों में भी

धूल पड़ जाते है ।


एक घड़ी थी जो अब बंद हो गई थी , उसमें चार बज रहे थे, ना जाने इस घड़ी ने चलना कब छोड़ा होगा , सुबह के चार बजे या शाम के ; खैर मैं जब इस कमरे से आखरी बार जा रही थी रात के ढाई बजे थे , हां शायद ढाई ही ! मुझमें हिम्मत नहीं थी सुबह का सूरज टूटे ख्वाबों के साथ देखूं , या शायद मैं सच देखना ही नहीं चाहती थी इसलिए उस कमरे को हमेशा हमेशा के लिए बंद कर दिया गया ।


वो गया अपनी तस्वीर भी ले गया

दीवारों दर की रौनक ले गया

अब तनहाई रहती है मेरे कमरे में

वो जाते  जाते अपनी खुशबू छोड़ गया



To be continued......








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